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लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया

विनय-झूठे हो। यहाँ कोई यजमानी है क्या?

 

नायकराम-जजमान कैसे, यहाँ तो मालिक ही हैं।

 

विनय-कब आए, कब? वहाँ तो सब कुशल है?

 

नायकराम-हाँ, सब कुशल ही है। कुँवर साहब ने जब से आपका हाल सुना है, बहुत घबराए हुए हैं, रानीजी बीमार हैं।

 

विनय-अम्माँजी कब से बीमार हैं?

 

नायकराम-कोई एक महीना होने आता है। बस, घुली जाती हैं। कुछ खाती हैं, पीती हैं, किसी से बोलती हैं। जाने कौन रोग है कि किसी बैद, हकीम, डॉक्टर की समझ ही में नहीं आता। दूर-दूर के डॉक्टर बुलाए गए हैं, पर मरज की थाह किसी को नहीं मिलती। कोई कुछ बताता है, कोई कुछ। कलकत्तो से कोई कविराज आए हैं, वह कहते हैं, अब यह बच नहीं सकतीं। ऐसी घुल गई हैं कि देखते डर लगता है। मुझे देखा, तो धाीरे से बोलीं-पंडाजी, अब डेरा कूच है। अब मैं खड़ा-खड़ा रोता रहा।

 

विनय ने सिसकते हुए कहा-हाय ईश्वर! मुझे माता के चरणों के दर्शन भी होंगे क्या।

 

नायकराम-मैंने जब बहुत पूछा, सरकार किसी को देखना चाहती हैं, तो ऑंखों में ऑंसू भरकर बोलीं, एक बार विनय को देखना चाहती हूँ,पर भाग्य में देखना बदा नहीं है, जाने उसका क्या हाल होगा।

 

विनय इतना रोये कि हिचकियाँ बँधा गईं। जब जरा आवाज काबू में हुई, तो बोले-अम्माँजी को कभी किसी ने रोते नहीं देखा था। अब चित्ता व्याकुल हो रहा है। कैसे उनके दर्शन पाऊँगा? भगवान् जाने किन पापों का यह दंड मुझे दे रहे हैं।

 

नायकराम-मैंने पूछा, हुक्म हो, तो जाकर उन्हें लिवा लाऊँ? इतना सुना था कि वह जल्दी से उठकर बैठ गईं और मेरा हाथ पकड़कर बोलीं-तुम उसे लिवा लाओगे? नहीं, वह आएगा, वह मुझसे रूठा हुआ है। कभी आएगा। उसे साथ लाओ, तो तुम्हारा बड़ा उपकार होगा। इतना सुनते ही मैं वहाँ से चल खड़ा हुआ। अब विलम्ब कीजिए, कहीं ऐसा हो कि माता की लालसा मन ही में रह जाए, नहीं तो आपको जनम-भर पछताना पडेग़ा।

 

विनय-कैसे चलूँगा।

 

नायकराम-इसकी चिंता मत कीजिए, ले तो मैं चलूँगा। जब यहाँ तक गया, तो यहाँ से निकलना क्या मुसकिल है।

 

विनय कुछ सोचकर बोले-पंडाजी, मैं तो चलने को तैयार हूँ; पर भय यही है कि कहीं अम्माँजी नाराज हो जाएँ, तुम उनके स्वभाव को नहीं जानते।

 

नायकराम-भैया, इसका कोई भय नहीं है। उन्होंने तो कहा है कि जैसे बने, वैसे लाओ। उन्होंने यहाँ तक कहा था कि माफी माँगनी पड़े, तो इस औसर पर माँग लेनी चाहिए।

 

विनय-तो चलो, कैसे चलते हो?

 

नायकराम-दिवाल फांदकर निकल जाएँगे, यह कौन मुसकिल है!

 

विनयसिंह को शंका हुई कि कहीं किसी की निगाह पड़ गई, तो! सोफी यह सुनेगी, तो क्या कहेगी? सब अधिाकारी मुझ पर तालियाँ बजाएँगे। सोफी सोचेगी, बडे सत्यवादी बनते थे, अब वह सत्यवादिता कहाँ गई! किसी तरह सोफी को यह खबर दी जा सकती, तो वह अवश्य आज्ञा-पत्रा भेज देती; पर यह बात नायकराम से कैसे कहूँ।

 

विनय-पकड़े गए, तो!

 

नायकराम-पकड़ेगा कौन? यहाँ कच्ची गोली नहीं खेले हैं। सब आदमियों को पहले ही से गाँठ रखा है।

 

विनय-खूब सोच लो। पकड़े गए, तो फिर किसी तरह छुटकारा होगा।

 

नायकराम-पकड़े जाने का तो नाम ही लो। यह देखो, सामने कई ईंटें दिवाल से मिलाकर रखी हुई हैं। मैंने पहले ही से यह इंतज़ाम कर लिया है। मैं ईंटों पर खड़ा हो जाऊँगा। आप मेरे कंधो पर चढ़कर इस रस्सी को लिए हुए दिवाल पर चढ़ जाइएगा। रस्सी उस तरफ फेंक दीजिएगा। मैं इसे इधर मजबूत पकड़े रहूँगा, आप उधार धाीरे से उतर जाइएगा। फिर वहाँ आप रस्सी को मजबूत पकड़े रहिएगा, मैं भी इधर से चला आऊँगा। रस्सी बड़ी मजबूत है, टूट नहीं सकती। मगर हाँ, छोड़ दीजिएगा, नहीं तो मेरी हव्ी-पसली टूट जाएगी।

 

यह कहकर नायकराम रस्सी का पुलिंदा लिए हुए ईंटों के पास जाकर खड़े हो गए। विनय भी धाीरे-धाीरे चले। सहसा किसी चीज़ के खटकने की आवाज आई। विनय ने चौंककर कहा-भाई, मैं जाऊँगा। मुझे यहीं पड़ा रहने दो। माताजी के दर्शन करना मेरे भाग्य में नहीं है।

 

नायकराम-घबराइए मत, कुछ नहीं है।

 

विनय-मेरे तो पैर थरथरा रहे हैं।

 

नायकराम-तो इसी जीवट पर चले थे साँप के मुँह में उँगली डालने? जोखिम के समय पद-सम्मान का विचार नहीं रहता।

 

विनय-तुम मुझे जरूर फँसाओगे।

 

नायकराम-मरद होकर फँसने से इतना डरते हो! फँस ही गए, तो कौन चूड़ियाँ मैली हो जाएँगी! दुसमन की कैद से भागना लज्जा की बात नहीं।

 

यह कहकर वह ईंटों पर खड़ा हो गया और विनय से बोला-मेरे कंधो पर जाओ।

 

विनय-कहीं तुम गिर पडे, तो?

 

नायकराम-तुम्हारे जैसे पाँच सवार हो जाएँ, तो लेकर दौड़ईँ। धारम की कमाई में बल होता है।

 

यह कहकर उसने विनय का हाथ पकड़कर उसे अपने कंधो पर ऐसी आसानी से उठा लिया, मानो कोई बच्चा है।

 

विनय-कोई रहा है।

 

नायक-आने दो। यह रस्सी कमर में बाँधा लो और दिवाल पकड़कर चढ़ जाओ।

 

अब विनय ने हिम्मत मजबूत की। यही निश्चयात्मक अवसर था। सिर्फ एक छलाँग की जरूरत थी। ऊपर पहुँच गए, तो बेड़ा पार है; पहुँच सके तो अपमान, लज्जा, दंड सब कुछ है। ऊपर स्वर्ग है, नीचे नरक; ऊपर मोक्ष है, नीचे माया-जाल। दीवार पर चढ़ने में हाथों के सिवा और किसी चीज से मदद मिल सकती थी। विनय दुर्बल होने पर भी मजबूत आदमी थे। छलाँग मारी और बेड़ा पार हो गया; दीवार पर जा पहुँचे और रस्सी पकड़कर नीचे उतर पड़े। दुर्भाग्य-वश पीछे दीवार से मिली हुई गहरी खाई थी, जिसमें बरसात का पानी भरा हुआ था। विनय ने ज्यों ही रस्सी छोड़ी, गर्दन तक पानी में डूब गए और बड़ी मुश्किल से बाहर निकले। तब रस्सी पकड़कर नायकराम को इशारा किया।

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